लॉकडॉउन- सफल या विफल
"थक कर मत बैठ ए मुसाफिर तू आज हारा है तो कल सफल भी होगा ,
क्या हुआ आज अंधेरा है, तो कल एक नया सवेरा भी होगा"
आज हम सब एक महामारी के दौर से गुजर रहे है। आधुनिकता और विकास के इस दौर में मूल्यों कि चमक कही धुँधली पड़ गई है। चीन से आरंभ हुई इस महामारी ने आज ना ही केवल विकास की दर को जकड़ लिया है किंतु मानवता पर भी एक गहरा संकट बन कर सामने आयी है। ऐसे में विकसित देशों के पास जो संसाधन और जो कुशलता उपलब्ध है, वह विकासशील देशों के पास उस मात्रा मै उपलब्ध नही है जिससे स्थिति और बिगड़ती जा रही है। ऐसा ही विकासशील देश हमारा है जहां इस महामारी का आरंभ फरवरी के पहले हफ्ते में देखने को मिला जिसके बाद से इससे संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या बड़ती चली गई। इस वैश्विक महामारी की रोकदम के लिए हमारी सरकार ने "लॉकडाउन" का प्रयोग किया।
मगर प्रश्न ये उठता है कि क्या यह लॉकडॉउन सफल हो पाया। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में लोकडाउन का प्रयोग और उसकी सफलता पर कई पक्ष सामने आए। मेरे विचार में जब इस लाकडाउन की उपरी चमक को ना देख कर उसकी गहराई में जाकर देखा जाए तो हमे यह पता चलता है कि यह उपाय सक्षम साबित नहीं हो पाया। कुछ आंकड़े व घटनाओं की सहायता के माध्यम से मैं अपने पक्ष को रखना चाहूंगी।
सर्वप्रथम लॉकडाउन की सूचना देने से उसके आह्वान तक केवल 4 घंटे का समय दिया गया, जब की समय कि मांग यह थी की अग्रिम सूचना दी जाए ताकी देशवासी अपने आप को शारीरिक मानसिक व व्यावसायिक रूप से तैयार कर सकें।
आवश्यकता यह थी कि छोटे उद्योग पति अपने उद्योग व उद्योग में काम कर रहे मजदूरों को पूर्ण तरह सूचित कर व उन्हे कुछ संसाधनों के साथ रवाना कर सके ताकी वह भी महामारी के चलते व काम बंद हो जाने की वजह से अपने घर खर्च और परिवार की देखभाल कर सकें।
"चले थे वो इस आस के साथ की चलते चलते घर पहुंच जाएंगे मगर कहां जानते थे कि
सियासी नीतियों में बंध जाएंगे"
"थी आशा उनके मन में कि गांव पोहोंच जाएंगे मगर कहां जानते थे वो की परिवार को
रोटी के कुछ टुकड़े और कपड़ों के कुछ पुर्जे ही मिल पाएंगे"
आवश्यकता यह थी कि प्रवासी मजदूरों की आवाज़ भी एक पहचान मांग रही थी। क्या लोगों इन हालातों में उन मज़दूरों को दो वक्त की रोटी मिल पाई?
आवश्यक्ता यह थी कि कोटा में फंसे छात्रों की गुहार भी सुनी जाती। आवश्यकता यह थी कि जो छात्र अपनी प्रवेश परीक्षाओं की अनबन में फंसे है उन्हे सरकार की तरफ से एक मर्गदृष्टी मिलती जिससे वह छात्र मानसिक दबाव में आकर आत्महत्या का माध्यम नही चुनते।
तालाबंदी के मध्य वेतन का भुगतान, व बहू राष्ट्रीय संगठहनों द्वारा कर्मचारियों को निलंबित करना इन विषयों को भी संबोधन की आवश्यकता थी| प्रश्न यह है कि इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
"मुरझाए फुलवारी के लिए वो शीतल पवन थे निराशा में वो आशा की किरण थे
सैकड़ों चिराग जलाए उन्होने
रहे कार्यरत वह तन मन से"
कोरोना काल में कार्यरत सुदृढ़ व निष्ठापूर्वक "कोरोना वॉरियर" के अगर कार्य स्थलों व सुविधाओं को हम देखें तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि किन स्थितियों और हालतों में कोरोना वॉरियर काम कर रहे हैं।
जमीनी हकीकत देखी जाए तो पता लगता है कि चिकित्सक, पुलिसमैन, बैंक कर्मी व अध्यापक जो इस काल में भी शिक्षा संस्थानों में आकर ऑनलाइन संसाधनों के माध्यम से छात्रों को शिक्षित कर रहे है, क्या उन्हे पूर्ण सुरक्षा मिल रही है?
क्या सरकार ने चिकित्सक, बैंक कर्मी व पुलिस कर्मियों को उचित संख्या में "PPE" किट पहुंचाई? वेतन व अच्छी सुविधाओं के बिना भी वह अपनी कुशलता के माध्यम से पूर्ण निष्ठा के साथ इस महामारी से संक्रमित लोगो का इलाज कर रहे हैं। शायद ही बहुत कम लोग इस बात से परिचित हैं कि कई चिक्तिसक 5 महीनों से अपने घर नहीं गए।
आवश्यकता यह हैं की इस जंग में जिन चिकत्सकों ने अपनी जान गंवाई है उनकी शहादत को व्यर्थ ना जाने दिया जाए, ना की सिर्फ थाली पीट कर झूठा सम्मान दिखाया जाए।
सबसे महत्वपूर्ण विषय जो लॉकडाउन से प्रभावित हुआ है वह है देश की "जीडीपी", प्रश्न यह उठता है कि क्या लॉकडॉउन के चलते अपनी नौकरी खोने वाले कर्मचारियों व अपना उद्योग बंद पड़ते देखने वाले छोटे उद्योग पति, बिना वेतन के बिना काम कर रहे चिकित्सा कर्मी, सफाई कर्मी व शिक्षकों की जिम्मेदारी कौन लेगा।
कुप्रबंधन व अदूरदर्शी योजना ही सबसे बड़ा कारण है की लॉकडाउन असफल रहा।
अंत में बस यही कहना चाहती हूं कि कोई राष्ट्रीय सम्पूर्णत: किसी महामारी के लिए तैयार नहीं होता ना ही यह भविष्यवाणी कर सकता है की क्या होने वाला है पर उस समस्या से लड़ने के लिए आवश्यकता है कि एक प्रबंधित, व्यवस्थित व दूरदर्शित योजना का पालन हो और राष्ट्रवासियों का इस लड़ाई में पूर्ण सहयोग या योगदान हो।
धन्यवाद
पुनर्नवा शर्मा
(Psychology (hons) 3rd year)
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