मंगलवार, 31 अगस्त 2021

कविता - भारत (एक ख्वाब)

थीम : आज़ादी का अमृत महोत्सव
कविता - भारत (एक ख्वाब)

वर्षों पूर्व शुरू हुई कहानी,
आज पुनः चिंहित रूप से प्रख्यात हुई,
समूचे भारत की उम्र बढ़कर 75 साल हुई।
16 वीं में जो सुरंग खुदी,
17 वीं में वो गुफ़ा बनी ,
18 वीं में सांप्रदायिक हिंसा की राह तनी।
तभी अराजकता व अत्याचारों से पीड़ित धरती जागी ,
पश्चिम तक पहुंची आवाज़,
जब 57 में वृघल घन–घन बाजी।
जब तलवार की सार्थकता पर सबने चिंता व्यक्त्त की,
तब एक असहाय छाती लाठी ले तन खड़ी हुई।
प्रेरणा की इस मुक्ति ने जाने क्या जादू किया,
हर तब्के का स्वर स्वाधीनता सरगम में जा मिला।
सुखदेव, भगत, तिलक, जाने कितनों की शहादत भयी।
आसमान में हो रही यह बातचीत एक कदम आगे बढ़ी,
नेहरू जी के प्रस्ताव–"चलो ! 50 तक गड़ा जो रूपांतर, आज कहां तक पहुंचा अवलोकन कर कर आते हैं। हमारे प्रयासों का संपूर्ण जायज़ा लेने वापिस स्वर्ण धरती पर जाते हैं।" को सबकी सहमति मिली।
धरती पहुंच सब चिंतित हुए,एक ही नाद में बोल उठे–
" अरे भारतीयों! ये क्या , आज भी अराजकता जगमग है।
जातिवाद भी चरम पर, स्तिथि बेहद डगमग है।
भ्रष्टाचार से निहित समाज, कन्याओं पर अत्याचार,
गरीब आज भी लाचार , नैतिकता पर इतना प्रहार ।
कुछ समय बाद लोगों ने चुप्पी तोड़ और अपनी बात बोली,
"गलती हमारी नहीं, किसी और की ही है 
ऐसे मुल्क की सुरक्षा कैसे करें,
जिसे कोई परिभाषित तक न कर सके।
जातिवाद कब न था, धार्मिक मतभेद कब न था,
महिलाओं को कब पूर्ण अधिकार मिला,
गरीब तो सदियों से लाचार रहा,
शांत पूरा माहौल हुआ।
पुनः वह प्रेरणादाई लाठी जागी,
धीरे–धीरे बोलन लागी,
"माना तुम्हारा कहना, विविधता की परिभाषा कहां! पर एक बात तुम्हे भी माननी पड़ेगी मेरी, रंगों के अतिरिक्त सुंदरता कहां ?
भारत एक दरबार है,
जिसमें कई भाषाओं का प्रवाह है ,
इस पर अनेक विचारों का प्रभाव है,
भिन्न धर्मों का स्थान है,
हर वर्ग यहां विद्यमान है,
ऐसा हमारा हिन्दुस्तान है ।
बंदिशों मुक्त परिभाषा कहां ?
बंदिशों युक्त ख्वाइश कहां? 
भारत एक ख्वाब है , जिसे हर भारतीय को करना आत्मसात है।
परिभाषा नहीं हमें बनानी एक मिसाल है।"
अंत में वह बोले,
" माना अनेक प्रयास हुए,
कई सपने भी साकार हुए,
परंतु सफर अभी भी बाकी है।
देशवासियों , अभी तो एक पड़ाव है, जिसकी सभी को हार्दिक शुभकामनाएं, 
अभी भी कर्तव्यनिष्ठता की ही कामना है।
धन्यवाद।"
पुनः सबने आसमान की ओर रुख मोड़ लिया है।
मैं आज भी सोचती हूं, कितने फौलादी थे वोह लोग, जिन्होंने तिरंगे की आन में तिरंगा ओड़ लिया।

–हिमांशी मिश्रा
बी ए प्रोग्राम पॉलिटिकल साइंस + सोशियोलॉजी
द्वितीय वर्ष
जीसस एंड मेरी कॉलेज

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