कविता - कागज़ के टुकड़े
इंसानो से ज्यादा अहमियत हैं इन कागज के टुकड़ों की,
रिश्तों से ज्यादा और शायद सांसों से भी।
अपने लिए तो हम अनेक खुशी के लम्ह सजाते हैं,
पर दूसरों के लिए तो हम सोच भी नहीं पाते हैं ।
ऐसी लत लगीं हैं कागज के टुकड़ों को कमाने की,
कहों तो कहते हैं कि माँग हैं इस जमाने की।
पर कितनी दुर्लभ परिस्थिति हैं ।
ब्रहमांड की उम्र तक हम कह सकते नहीं
और इन टुकड़ों बिन हम रह सकते नहीं ।
हिमांगी मिश्रा
बी ए प्रोग्राम (पॉलिटिकल साइंस + सोशियोलॉजी)
जीसस एंड मेरी कॉलेज
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