सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

कविता - सुधर जा ऐ मानुष

           सुधर जा ऐ मानुष

सुधर जा ऐ मानुष अब भी समय है,
सुधर जा ऐ मानुष अब भी समय है॥
यह लीला रची है जिसने संसार की
आज देखा है उसने यह कुकर्म का लेखा
देखा उसने अभी बस कुछ क्षण भर है, ध्यान देने पे प्रलय न आने में देर है
सुधर जा ऐ मानुष अब भी समय है।।
यह सुनामी,यह त्रासदी,यह बदलती महामारी यह सब तेरे कर्मों का फल है।।
सुधर जा ऐ मानुष अब भी समय है,
जो बीत गया सो भूल कर कल को उजियार, वरना यह कमाई धरी रह जायेगी सब तेरे जाने के बाद,,कुछ ना रहेगा तब तेरे चाहने वालो के पास,खुद के लिए कम जरूरत मंद लोगों के लिए कर विचार।
क्या करेगा यूं घूम कर दूर विदेशी राज्य
जब न रहेगा खुद का यह स्वर्गीय सा कुटुम्ब राज्य।।
सुधर जा और कर सब पर उपकार
भूल जा द्वेष भावना अपना मैत्री की राह
भूल जा किसे देना है दंड किसे करना है क्षमा।।
रख बस ईश्वर पर भरोसा यह पल भी बदलेगा जरूर अगर सब मिल कर देगे एक दूसरे का साथ।।
होगा अगर सब उसके अनुसार,सब ठीक हो जायेगा रख उस पर विश्वास।।।


_वर्षा द्विवेदी_


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