जब बैठी थी एक वासर,
जाकर मैं वसुधा पर-
"कितना तनाव है सारी दुनिया का
केवल केवल मुझ पर
कितना बोझ है मेरे सिर पर।"
निशा को नींद भी मुझे आती नहीं,
आकर क्यों निंदिया - रानी, मुझे भी सुलाती नहीं।
बैठ गई निराशा लिए एक कोने में,
"आखिर क्या अच्छा है मनुष्य होने में?"
तभी धरती के गर्भ से आई एक पुकार-
"अरे! मानव भी मान लेता है उतनी जल्दी हार?"
"अहो! सबको अपनी ही वेदना नज़र आती है।"
"यह ग्लानि तो हमें भी बहुत सताती है।"
कष्ट तो हमें भी है,
पर समक्ष केवल ज़िम्मेदारी ही नज़र आती है।
इतने में एक रूदन सुनाई देने लगा
एक पेड़ मुझसे कहने लगा -
"तुम मानव फल रूपी बच्चों को मुझसे नोंच लेते हो
तुम स्वार्थी मेरा बदन भी चीर देते हो।"
इस कटुता को पी ही रही थी कि आसमान कला पड़ गया
"कहने लगा मेरा तो सारा जीवन ही सिकुड़ गया
तुमने मेरा दम घोंट दिया
मेरे अश्रु - विस्फोट को भी रोक दिया।"
यह सारे स्वर मेरे कर्णों में बजने लगे
क्यों सब मुझ दुखी पर आरोप मढ़ने लगे?
क्या केवल में ही हूं सबकी ज़िम्मेदार?
क्या किसी को नहीं दिखती मेरी भी दुखों की दीवार?
आह! मैं तो प्रकृति से दर्द बांटने आई थी
अनभिज्ञ थी कि यह भी मनुज ने सताई थी।
मां भारती से मेरी उदासी न देखी गई
अब मां तो मां है - मुझे गोद में भरकर सहलाने, समझाने लग गई।
यदि पेड़ फलों का त्याग ना करे
तो उनमें कीड़े पड़ जायेंगे।
लताएं दुर्गंध देंगी।
और फल सढ़ जायेंगे।
तू मेरी गोद में बैठी है, तू भी मेरे लिए भार है।
पर सफल वही जो हर भार के लिए सदैव तैयार है।
ओह! यह कठिनाइयां आती रहेंगी।
कब तक तनाव लिए एक कोने में बैठी रहेगी।
"उठ और त्याग यह विलाप,
इन चुनौतियों को जीतकर दिखा
अपनी स्त्रीता तो चुनौती दे
और छोड़ यह प्रलाप - छोड़ यह प्रलाप।।"
अनुष्का कौशिक
1st year B.el.ed.
जीसस एंड मेरी कॉलेज
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